Tuesday, May 22, 2012

kavitaye hindi me

1.
इंसान

इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा
आकाश में उड़ कर, चाँद पे जा पहुँचा
ऊँची तालीम हासिल कर, ऊँचे ओहदे पे जा बैठा !
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया ?

उसने दो और दो चार करना तो जाना,
पर क्या उसने एक और एक ग्यारह करना भी जाना ?
उसने संख्या जोड़ना तो जाना
पर क्या उसने घर जोड़ना भी जाना ?

उसने अक्षर-अक्षर जोड़कर शब्द बनाना तो सीखा
पर क्या उसने भाई को भाई से जोड़कर परिवार बनाना भी सीखा ?
वह आकाश की ऊँचाईयों को छू आया
पर क्या वह सँस्कारों की ऊँचाईयों को भी छू पाया ?

उसने समन्दर की गहराई को तो मापा
पर क्या उसने मां के प्यार की गहराई को भी नापा ?
वह नफ़रत की आग बनकर भड़का
पर क्या वह कभी प्यार की बरसात बनकर भी बरसा ?


उसने ईंट से ईंट जोड़कर मज़बूत इमारत की नींव डाली
पर क्या उसने कभी इंसान को इंसान से जोड़कर मजबूत समाज की भी नींव डाली ?
उसने हाथ उठाना तो सीखा,
पर क्या उसने प्यार से हाथ मिलाना भी सीखा ?

उसने ताउम्र धन – धान्य तलाशा,
पर क्या उसने कभी दूसरों का दुख दर्द भी तलाशा ?
उसने अपनों के साथ सियासत करना सीखा
पर क्या उसने अपनों के साथ रियायत करना भी सीखा ?

उसने अपनी हवेली में उजाले भरे
पर क्या उसने कभी ग़रीबों की बस्ती के अंधेरे भी दूर किए ?
उसने धरती का चप्पा-चप्पा भरपूर निचोड़ा
पर क्या उसने उसके पनपने के लिए भी कहीं कुछ छोड़ा ?


उसने मुँह फेर कर जाना सीखा
पर क्या उसने पलट कर गले लग जाना भी सीखा ?
उसने रुतबे के सामने सिर झुकाया
पर क्या उसने बुज़ुर्गों के सम्मान में सिर झुकाया ?

इंसान आज तरक़्क़ी कर, बुलन्दियों पे जा पहुँचा
पर क्या उसकी तालीम ने इंसानियत का भी पाठ पढ़ाया ?

2.
समाज अक्सर अजीबो गरीब दौर से गुज़रता है तब कई तरह के दौरे उसे पड़ते हैं. उन दौरों की स्थिति में वह संज्ञा- शून्य हुआ क्या करता है - आप और हम सभी उससे वाकिफ हैं, समाज की उन मन:स्थितियों का हवाला ही, नीचे लिखी कविता का कलेवर है.

ऐसा होता है अक्सर !


आपाधापी दौर / दौरा
एक दिन समाज के दर्शन करने घर से निकली
तो देखा समाज दौड़ रहा था........
धुएँ का ग़ुबार था, शोर का उबाल था,
मैंने पूछा - क्या पाने के लिए दौड़ रहे हो ?
लक्ष्यविहीन समाज का जवाब क्या होता !
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो ये दौड़ क्यों, आपाधापी क्यों ?
सबको दौड़ते देख, मैं भी दौड़ में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते, जैसे वह एकाएक दौड़ के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों रहा हूँ दौड़, पैर सिर पे रख कर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !

हिंसा दौर/ दौरा
आगे बढ़ी तो चीख पुकार का ज़ोर था,
समाज हिंसा से सराबोर था,
कुछ लोग हिंसा के चक्रव्यूह में हो रहे थे ढेर,
वार कर रहे थे लोग, उन्हें चारों ओर से घेर,
मैंने पूछा - ये मार पीट क्यों ?
उद्देश्यविहीन समाज का जवाब क्या होता !
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो ये हिंसा क्यों ?
सबको वार करते देख, मैं भी हिंसा में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे वह एकाएक हिंसा के जुनून से बाहर आया
बोला - पर मैं क्यों कर रहा हूँ वार उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !



उपहास दौर/ दौरा
आगे बढ़ी तो देखा समाज हँसते-हँसते लोट पोट था,
कोई मुँह दबाकर, तो कोई मुँह फाड़कर,
एक निरीह पागल की हरकतों को देखकर
पेट पकड़ के हँसने को जैसे मजबूर था,
हँसी के चक्रवात में चक्रम में बने समाज से,
मैंने पूछा – किस पर हँस रहे हो और क्यों ?
बुध्दिविहीन समाज का क्या जवाब होता !
बोला - पता नहीं !
सबको हँसते देख मैं भी हँसी में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे एकाएक वह हँसी के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों हँस रहा हूँ उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !


लांछन दौर / दौरा
आगे बढ़ी तो देखा गली के नुक्क्ड़ पर,
फटेहाल घर के नीचे खड़ा समाज,
एक दीन हीन औरत को लांछित कर रहा था,
पुण्यात्मा समाज से मैंने पूछा - उसे क्यों धिक्कार रहे हो ?
विचारहीन समाज का क्या जवाब होता,
बोला - पता नहीं !
पता नहीं तो तुम्हें उसे धिक्कारने का कोई अधिकार नहीं,
सबको धिक्कारते देख, मैं भी ‘धिक्कार’ में शामिल हो गया,
यह कहते-कहते जैसे एकाएक वह धिक्कारने के जुनून से बाहर आया,
बोला - पर मैं क्यों कर रहा हूँ शब्दों के वार उस पर ?
मैंने कभी सोचा क्यों नहीं इस पर !
मैंने कहा - आज के ज़माने में ऐसा होता है अक्सर !
3.
आँखें
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती
निशब्द, किताबी आँखें वे, कितना कुछ कह-कह जाती

उलझे विचार सी लगती, कभी संवेदना बन जाती
कभी बादल की तरह उमडती, कभी चिंगारी हो जाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती..

कभी किलकती शिशु सी, कभी यौवन सी इठलाती
जीवन संध्या जीने वालों सी, कभी एकाकी हो जाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती...

कभी कथानक, कभी संवाद, अनगिनत चरित्रों का संसार
खामोशी से कहती कुछ-कुछ, रिश्ते की बुनियाद बनाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती...

उठती, झुकती, मुस्काती, कभी इन्द्रधनुष बन जाती
छुपाए नवरस कोरो में, दर्द के कतरे छलकाती
वे आँखें महागाथा सी, लंबी कथा सुनाती

4.
मन-मन में बसी हिन्दी

इसमें चंदा की शीतलता, इसी में सुन्दरता सर की।
इसी में रामायण गीता, इसी में मोहम्मद और ईसा॥
ये भावों की अभिव्यक्ति, ये है देवों की भी वाणी।
इसी में प्यार पिता का तो, इसी में लोरी भी माँ की॥


खान जो सूर-तुलसी की, वहीं दिनकर और अज्ञेय की।
सइमें मर्यादा निराला की तो मादकता बच्चन की।
इसमें मस्ति श्री हैं मन की, इसमें श्रद्धा भी है तन की।
कथा ये राम और सीता की कथा ये कृष्ण और राधा की।


सुनो खामोश गलियों में रहने वालो तुम सुन लो।
हिन्दी भारत की भाषा है, और भारत वर्ष हमारा है॥
इसके सम्मान के खातिर, जंग करनी भी पड़ जाए।
पीछे हटना यहां पर तो हमें अब नागवारा है॥


हिन्दी गंगा की धारा है, जो कर देती प्लावित तन मन।
बिना इसके अचल निस्पंदन लगता है सारा-जीवन॥
ये तो वो आग है जिसमें, ढुलकते बिंदु हिमजल के।
ये जो जलदों से लदा है गगन, ये फूलों से भरा है भुवन॥

5.
कर लो हिन्दी से प्यार

हिन्दुस्तानी हैं हम हिन्दू, हिन्दी हमारी भाषा है।
इसमें वीणा के सुर हैं तो, ये सरिता की धारा है॥
इसमें सागर गहरा पिताः सा, तो ममता भी माँ सी है।
जिस भी रहे हम हाल में बंधु, इससे हमारा नाता है॥


हिन्दी पर है गर्व हमारा, इससे पुराना नाता है।
ये भावों की निर्झरणी है, ये देवो की वाणी है॥
इसमें पुत्र पिता कहते है और, पत्नी कहती प्राणाधार।
मैं भारत का पुत्र कहाता, ये भाषा इस मां की है॥


ये भाषा तुझको देती है, पूर्वजों का भी ज्ञान-प्रसाद।
और भविष्य भी है, जो तुम्हारा कर देती है शुभ संवाद॥
देखो प्यारे इसको बनाओ अपने गले का नवलख हार।
एक बात पते की बताऊँ, कर लो हिन्दी से भी प्यार॥

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