Friday, June 21, 2013

देख रही थी
उस रोज़ बेटी को
सजते-सँवरते
शीशे में अपनी
आकृति घंटों निहारते
नयनों में आस का
काजल लगाते,

उसके दुपट्टे को
बार-बार सरकते
और फिर अपनी उलझी
लटों को सुलझाते
हम उम्र लड़कियों के
साथ हँसते-खिलखिलाते।

माँ से अपनी हर बात छिपाते
अकेले में ख़ुद से
सवाल करते,
फिर शरमा के,
सर को झुकाते।

और फिर कभी स्तब्ध
मौंन हो जाते,
कभी-कभी आँखों
से आँसू बहाते
फिर दोनों हाथों से
मुँह को छिपाते।

देखकर सोचती हूँ उसे
लगता है,
बिटिया अब बड़ी
हो गई है।

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